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‘कई बार समस्याएं इतनी बड़ी नहीं होती, जितना कि लोग उसे बड़ा बना देते हैं।’

पिछले साल ही मनोज (बदला हुआ नाम) 18 वर्ष का हुआ है। वोटर कार्ड के हिसाब से वह इतना बड़ा हो चुका है कि वो अपने देश और राज्य की सरकार को चुन सकता है, लेकिन अपने समाज को नहीं चुन सकता जिसने उसे सालों कमरे में बंद रहने को मजबूर कर दिया था। समाज के डर के कारण घर से बाहर न जाने वाला मनोज आज अपने भविष्य के रास्ते ख़ुद बना रहा है। एक समय था कि उसे लेप्रोसी (कोढ़) बीमारी होने के कारण अछूत मानकर घर से बाहर नहीं निकलने दिया जा रहा था, उसके स्कूल के अध्यापकों ने भी उसे स्कूल आने से मना कर दिया था। लेकिन आज करंजिया के आईटीआई कॉलेज, मयूरभंज, से मैकेनिकल ट्रेड में वो न सिर्फ़ डिप्लोमा कर रहा है बल्कि पार्ट टाइम नौकरी कर अपने परिवार की आर्थिक मदद भी कर रहा है।
मनोज, चंपुआ ब्लॉक, उड़ीसा का रहने वाला है। उसकी तीन बहनें है, एक उससे बड़ी और दो छोटी। बड़ी बहन की शादी हो चुकी है। पिता दिहाड़ी मज़दूर हैं और मां घर का काम-काज संभालती हैं। घर का खर्च पिता की दिहाड़ी और मनोज के पार्ट टाइम जॉब से चलता है। मनोज के पिता बताते हैं कि ‘वो 10 साल का रहा होगा जब उसे पहली बार यह बीमारी लगी, उस समय वह सरकारी स्कूल में पढ़ता था।’ मनोज बताता है कि वह पांचवीं में था जब उसने पहली बार अपने शरीर पर थोड़ी जलन के साथ इन लाल धब्बों को नोटिस किया। शुरू में उसे लगा कि यह बस ऐसे ही है, अपने आप चला जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। समय बीतने के साथ उनकी संख्या और आकर दोनों ही बढ़ते गए।

मनोज और उसकी छोटी बहन।

लेप्रोसी (कोढ़) जैसी बीमारी को लेकर समाज में आज भी कई तरह की अजीब धारणाएं हैं और इन धारणाओं से मनोज के मां-बाप भी अछूते नहीं थे। मनोज के शरीर पर पड़ने वाले इन लाल धब्बों से उनकी चिंता भी बढ़ने लगी थी, कि अब समाज उनके साथ कैसा व्यवहार करेगा, जब उसे इस रोग के बारे में पता चलेगा? भारतीय समाज में यह आम धारणा रही है कि यह एक घिनौनी और छुआछूत वाली बीमारी है। अगर किसी एक को है तो यह पूरे परिवार में भी फ़ैल जाएगा। समाज में इस बीमारी का दर्ज़ा एक ‘श्राप’ के रूप में है। मैंने इस बीमारी को ‘श्राप’ के रूप में इस्तेमाल होते हुए देखा है। जब भी कोई किसी से भयानक रूप से नफरत करता है तो उसे यह बीमारी ‘श्राप’ के रूप में दिया जाता रहा है। और यह आज भी हमारे समाज में बोला जाता है।
मनोज की तमाम कोशिशों के बावजूद अब वो धब्बे कपड़ों से बाहर झांकने लगे थे। यह धब्बे एक ‘श्राप’ के रूप में मनोज के साथ उसके पूरे परिवार पर चिपक गए थे। धीरे-धीरे लोगों ने उससे दूरी बनानी शुरू कर दी, दोस्त भी नजदीक आने से कतराने लगे थे। मनोज को लगने लगा था कि इस कारण से एक दिन उसे स्कूल से भी बाहर निकाल दिया जाएगा। जब तक वो उन धब्बों को कपड़ों के भीतर छुपा सकता था तब तक वो स्कूल, समाज और अपने दोस्तों का हिस्सा बना रह सकता था। लेकिन बीतते समय के साथ अब यह मुश्किल हो रहा था और एक दिन स्कूल ने भी उससे दूरी बना ही ली। मनोज आठवीं में था जब उसके टीचर ने, स्कूल आने से मना कर दिया, कहा कि ‘तुम्हें एक खतरनाक बीमारी हो गई है इसलिए तुम स्कूल मत आओ’। अगले दिन से वो कभी स्कूल नहीं गया।

एक समय था जब स्कूल के अध्यापकों ने मनोज को स्कूल आने से मना कर दिया था लेकिन अभी वो बहुत गर्व के साथ मनोज का परिचय बाकी छात्रों से कराते हैं।

मनोज अपने दोस्तों के साथ खेलते हुए, एक समय था कि जब उसके दोस्तों ने भी उससे दूरी बना ली थी।

इस बीमारी से उसके शरीर में काफी दर्द रहता था लेकिन उससे कहीं ज़्यादा उसके अपने रिश्तेदारों, पड़ोसियों और मित्रों के व्यवहार से दर्द हो रहा था। जब भी लोग उसके घर आते, यही कहते कि ‘यह बहुत खतरनाक बीमारी ज्यादा दिन नहीं जी पाएगा’…। मनोज की मां कहती हैं कि ‘लोगों की यह बातें, उस बीमारी से ज़्यादा दुख पहुंचाती थीं।’ समाज ने ‘बीमारी फ़ैलने का डर’ दिखा कर मनोज का घर से निकलना बंद कर दिया था। लोगों ने कहा ‘अगर डॉ को दिखाने ले गए तो यह और लोगों तक फ़ैल जाएगा इसलिए घर पर ही रहकर कुछ घरेलू इलाज करना ही ठीक रहेगा..।’ यह सब सुनकर उसके मां-बाप की तकलीफें और बढ़ती जा रही थीं। वे कहते थे कि ‘हमने ज़रूर पिछले जन्म में कोई बुरे कर्म किए होंगे, तभी यह सज़ा मिली है। इससे तो बेहतर है कि इसे ज़हर ही दे दिया जाए..।’ मनोज की शारीरिक और मानसिक हालत बेहद गंभीर थी। अब वह अपने कमरे से बाहर नहीं निकलता था। वो नितांत अकेला पड़ गया था और पूरी तरह अपने में ही डूबता जा रहा था।

बाएं: पड़ोस में रहने वाले मनोज के चाचा-चाची। दाएं: मनोज और उसका अकेलापन।

बाएं: मछली पकड़ते हुए। दाएं: समाज के द्वारा अकेला छोड़ दिए जाने के बावजूद मनोज ने हिम्मत नहीं हारी थी, उसे बस किसी सहारे और हिम्मत देने वाले की ज़रुरत थी।

उस समय संध्या (वर्तमान में कम्युनिटी फेसिलिटेटर, एस्पायर) एस्पायर के साथ जुड़कर उस पंचायत में, समुदाय के लोगों को शिक्षा और उससे जुड़े अन्य मुद्दों पर जागरूक व उन्हें संगठित करने का काम करती थीं। संध्या ने बताया कि स्कूल में बच्चों की उपस्थिति को ट्रैक करने के दौरान उन्हें पता चला कि ‘मनोज’ लम्बे समय से स्कूल नहीं आ रहा है। वजह पूछने पर पता चला कि उसे लेप्रोसी हुआ है। संध्या को इस बीमारी को लेकर समाज की मान्यताओं के बारे में पता था। वो यह जानती थी कि इन मान्यताओं से लोगों को मुक्त करना आसान नहीं होने वाला है और सबसे ज़्यादा मनोज को इन सब से निकालना और भी मुश्किल होने वाला है।
एस्पायर ने, बेहद विपरीत परिस्थितियों से आने वाले बच्चों की शिक्षा के अधिकार पर काम करने का चुनाव किया है। वह इसके लिए कई स्तरों पर एक साथ काम करता है, जिनमें वह उनके लिए किताबों की व्यवस्था करना, बच्चों की लाइब्रेरी स्थापित करना, आवासीय और गैर आवासीय ब्रिज कोर्स केन्द्रों की स्थापना, जिनके ज़रिए वो अपने लर्निंग गैप को पूरा कर सकें और इसके साथ-साथ उनके परिवार और समाज को भी शिक्षा के प्रति जागरूक करना और उसके प्रति उत्तरदाई बनाना, रहा है। वर्तमान में में एस्पायर, लगभग 15,00,000 बच्चों की शिक्षा के लिए काम कर रहा है। इनमें बहुत सारे ऐसे बच्चे हैं, जो हिंसा, ट्रैफिकिंग, चाइल्ड एब्यूज, बाल विवाह, बाल मजदूरी, जाति या फिर बीमारी के आधार पर भेदभाव या दुर्व्यवहार शिकार जैसी परिस्थितियों से आते हैं। मनोज इन्हीं में से एक बच्चा है जो लेप्रोसी जैसी बीमारी के कारण समाज ने उसे मरने के लिए अकेला छोड़ दिया था।

बच्चों की वास्तविक स्थिति की पड़ताल और समुदाय के लोगों को जागरूक करते हुए संध्या।

संध्या बताती हैं कि ‘जब पहली बार मनोज को देखा, तो मैं थोड़ा डर गई थी। लेकिन फिर मुझे लगा कि अगर यह बीमारी मेरे ही घर के किसी सदस्य को होती तब क्या करती? क्या इसे ऐसे ही छोड़ देती?’ संध्या के लिए भी शुरुआत में यह सब कुछ आसान नहीं था। पहले तो उसे अपनी ही धारणाओं के ख़िलाफ़ लड़ना और फिर समाज की धारणाओं के ख़िलाफ़ लड़ना..। इस बीमारी को लेकर, घर से लेकर बाहर तक, सभी लोग कई तरह के वहम के शिकार थे। संध्या ने कई बार मनोज को अस्पताल ले जाने की कोशिश की। समुदाय की तरफ़ से उसे बार-बार कहा गया कि ‘वो अपने साथ-साथ इस बीमारी को पूरे गांव में फैला रही है’। इन सब के बावजूद वो पूरे महीने मनोज के मां-बाप और समुदाय के लोगों से लगातार मिलती रही और समझाती रही थी।
एस्पायर के साथ काम करने वाले लोग भी उसी समाज का हिस्सा हैं जहां इस तरह की धारणाएं पलती हैं। इस बात को समझते हुए वह उनके चेतना के मनोज और कौशल को बढ़ाने के लिए कई तरह के ट्रेनिंग प्रोग्राम का आयोजन करता रहता है। ख़ास तौर पर इस तरह के बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए, उसने निमहैंस के साथ मिलकर 84 घंटे का एक ओरिएंटेशन प्रोग्राम किया। जिसमें 105 स्टाफ के लोगों ने भागीदारी की। संध्या उन स्टाफ में से एक थी।

ऐसा नहीं था कि इस बीमारी से संध्या को शुरू में डर नहीं लगा था! वो अपने डर से लड़ते हुए, समाज के डर से भी लड़ रही थी और लगातार आगे बढ़ रही थी।

संध्या का लगातार मनोज और उसके परिवार से मिलना गांव के लोगों को यह भरोसा दे रहा था कि यह छूआ-छूत वाली बीमारी नहीं है। अंततः एक दिन संध्या, मनोज और उसकी मां को लेकर चम्पुआ के सरकारी अस्पताल पहुंच ही गई। वहां के डॉक्टर ने सलाह दी कि इस बीमारी के बेहतर इलाज के लिए उन्हें ‘क्योंझर’ जिले के सरकारी अस्पताल में जाना चाहिए। इलाज शुरू होने के बाद, एक विशेष डॉक्टर को भी मनोज के घर भेजा गया और फिर लगातार चलने वाले इलाज से उसकी यह बीमारी धीरे-धीरे कम हो गई। मनोज के पिता बेहद गंभीर होते हुए कहते हैं ‘कई बार समस्याएं इतनी बड़ी नहीं होती, जितना कि लोग उसे बड़ा बना देते हैं।’ आगे कहते हैं कि ‘यदि मैं अभी तक लोगों की सुन रहा होता तो मेरा बच्चा आज इंजीनियरिंग की पढ़ाई नहीं कर रहा होता’।

बाएं: मनोज अपने पिता के साथ, दाएं: मनोज और उसका पूरा परिवार।

बाएं: मनोज के पास दवा है या नहीं इसको सुनिश्चित करने के लिए आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हमेशा मनोज से मिलती रहती थीं। दाएं: मनोज, पड़ोस के बच्चों के साथ।

इलाज के दौरान एस्पायर लगातार मनोज की शिक्षा को जारी रखने की जरूरतों को भी पूरा करता रहा था। मनोज बताता है कि ‘जब भी उसकी दवा ख़त्म होने लगती थी तो वो संध्या को ही फ़ोन करता था’। वह एस्पायर के द्वारा चलाई जा रही कक्षाओं और किताबों के जरिए अपनी पढ़ाई के साथ जुड़ा रहा। उसने अपनी कड़ी मेहनत से हाईस्कूल अच्छे अंको से पास किया और अब वो मयूरभंज से आईटीआई कर रहा है। संध्या कहती हैं कि ‘मनोज उसके समाज के लिए किसी प्रेरणा से कम नहीं है, जो इतनी परेशानियों के बावजूद हमेशा मुस्कुराता रहता है’। वो इसके लिए एस्पायर को विशेष रूप से क्रेडिट देती है जिसने इस तरह के कार्यकर्ता तैयार किए हैं जो किसी भी परिस्थितियों को बदलने का हौसला रखते हैं।

मनोज को किताबों और मां से बेहद लगाव है, उसने कठिन हालातों में भी किताबों का साथ नहीं छोड़ा। 

आज वह खुद तो आगे बढ़ ही रहा है और इसके साथ अन्य बच्चों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित भी कर रहा है।

पहले के मनोज में और आज के मनोज में फ़र्क़ साफ़ दिखता है। अब वह लोगों से मिलने, बात करने से छिपता नहीं है, हां, वो पहले की तरह ही अभी भी शर्मीला ज़रूर है, लेकिन अब न वो कमरे में बंद रहता है और न ही अपने शरीर को कपड़ों से छिपाने की कोशिश करता है। जिस समाज और स्कूल ने उसे अपने बीच से निकाल कर, एक कमरे में बंद रहने को मजबूर कर दिया था, अब वो उन्हीं के बीच, पूरे वजूद और आत्मविश्वास के साथ, अपने इंजीनियर बनने के सपनों को पंख लगा रहा है। संध्या का शुक्रिया, जिसकी कोशिशों ने, न सिर्फ़ मनोज को इस उत्पीड़न से मुक्त किया बल्कि उसके परिवार और समाज को भी इन धारणाओं से मुक्त किया। एस्पायर को संध्या जैसे समर्पित सामाजिक कार्यकर्ताओं पर गर्व है।