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चुनभट्ठी गांव में अब शिक्षा से कोई भी बच्चा वंचित नहीं

संगीता, ‘बंधापर’ के सरकारी माध्यमिक स्कूल में पढ़ती है। वह 7वीं कक्षा में है। लेकिन आज वह स्कूल नहीं जा रही है। बकरियों की रस्सियां खोलते हुए वह कहती है ‘गांव के अधिकतर बच्चे आज स्कूल नहीं जा रहे हैं, इसीलिए वह भी नहीं जाएगी’। उसे अकेले इतनी दूर जाने में डर लगता है। पिता कहते हैं कि ‘स्कूल की दूरी लगभग 6 किमी है, हालांकि यह दूरी बहुत मायने नहीं रखती, अगर रास्ता सुरक्षित हो तो।
छत्तीसगढ़ का ज़िला ‘कोरबा’ को एक छोटे से औद्योगिक शहर का दर्ज़ा हासिल है। यहां कई सारी कोयला- खदानें, फैक्ट्रियां और बिजली उत्पादन के प्लांट हैं। सालों पहले यहां से बिजली और कोयला देश के दूसरे कोने में पहुंच गए हैं, लेकिन संगीता का स्कूल अभी भी उसके गांव तक नहीं पहुंच पाया है। कोरबा में ऐसे कई गांव हैं जहां शिक्षा की रोशनी बहुत ही मद्धम है। ब्लॉक पोंडी़ उपरोड़ा का गांव ‘चुनभट्ठी’ उनमें से एक है। डिजिटल एजुकेशन के दौर में यह गांव अभी भी नेटवर्क से कटे हुए हैं, ऊपर से बिजली की दिक्कत इस मुश्किल को और बढ़ा देती है। घनी बारिश के समय में तो कई-कई दिनों के लिए यह गांव अंधेरे में डूबे होते हैं।

चुनभट्ठी गांव को बाक़ी दुनिया से जोड़ने का एकमात्र रास्ता जिस पर अभी हाल ही में मिट्टी डाली गई है।

चुनभट्ठी नाम का यह गांव चारों तरफ़ से घने जंगलों और पहाड़ों से घिरा हुआ है। यहां के लोगों का जीवन-यापन थोड़ी-बहुत खेती, दिहाड़ी-मजदूरी और जंगल के उत्पाद पर निर्भर है। गांव को बाहरी दुनिया से जोड़ने का एकमात्र रास्ता, बेहद कच्चा, उबड़-खाबड़ और घने जंगलों से होकर गुजरता है। मुख्य मार्ग लेपरा से इस गांव के लिए (4 किमी) ना तो कोई पक्की सड़क है और ना ही कोई ठीक से कच्ची सड़क। गांव वाले बताते हैं कि उन्हें उस समय बहुत मुश्किल होती है जब कोई बीमार हो जाता है। विशेष तौर पर गर्भवती महिलाओं के लिए यह उबड़-खाबड़ रास्ता जानलेवा साबित होता है। इस गांव के सबसे नजदीक स्कूल, ‘मुढ़ाकी प्राथमिक स्कूल’ है, जिसकी दूरी भी लगभग 4 किमी है और यहां तक पहुंचने का रास्ता भी बेहद ख़राब है। ऐसे में बच्चों के मां-बाप, छोटे बच्चों को तो बिल्कुल भी स्कूल नहीं भेजना चाहते हैं और यदि रास्ता जंगलों से घिरा हो तो बिल्कुल भी नहीं। वे कहते हैं कि ‘बच्चों को जोखिम में डालने से बेहतर है कि वे यहीं घर पर रहें और घर के कामों में सहयोग करें’। इस गांव में आंगनबाड़ी भी नहीं हैं कि बच्चे वहां जा सकें।

स्कूल न जा पाने की स्थिति में बच्चे खेती में, जानवर चराने में या अन्य घरेलू कामों में लगा दिए जाते हैं।

मां-बाप के अपने ‘डर’ के साथ-साथ बच्चों का भी अपना ‘डर’ होता है.. ‘डर’, किसी भुतहे पेड़ से या फिर किसी जानवर से.. आख़िर बचपन में हम भी तो इसी डर के साथ बड़े हुए हैं। मेरे बचपन की दो घटनाएं, मुझे आज भी याद हैं। एक तो वह बड़ा सा आम का पेड़, जो मेरे स्कूल के रास्ते में पड़ता था, उसे अकेले पार करने के लिए मुझे सभी देवताओं का आह्वान करना पड़ता था और दूसरा रात में सियारों की हुवां हुंवा..! कई बार तो वे ठीक मेरे घर के पीछे ही चीख़ रहे होते थे। बच्चे बताते हैं कि ‘घर से स्कूल जाते समय जंगली जानवरों से बहुत डर लगता है। इसलिए हम सभी बच्चे एक साथ मिलकर स्कूल जाते हैं। लेकिन जिस दिन स्कूल जाने के लिए केवल एक या दो बच्चे ही तैयार होते हैं, उस दिन हम स्कूल ही नहीं जाते हैं’। संगीता बीच में बोल उठती है कि ‘रास्ते में ‘भदरा नाला’ भी पड़ता है जहां चोरी, डकैती होती है, उस जगह से हमें बहुत डर लगता है’। बच्चे आगे कहते हैं कि ‘हम स्कूल के लिए पहुंच तो जाते हैं लेकिन फिर एक ही बात दिमाग में बार-बार आती रहती है कि हम घर वापस कैसे जाएंगे? अगर हम अकेले रह गए तो..? अगर रास्ते में भालू, हाथी, लकड़बग्घे (Hyena) हुए तो..?’ इन इलाक़ों में हाथियों का काफी आतंक है। अभी कुछ ही दिन हुए हैं, हाथियों ने गांव में कुछ घरों को तोड़ दिया था।

बाएं: स्कूल जाते हुए चुनभट्ठी गांव के बच्चे, दाएं: इस ग्रामीण के घर को हाथियों ने तोड़ दिया है। इस घटना को हुए अभी कुछ ही दिन हुए हैं। इस इलाक़े में और कई जंगली जानवर हैं। जिनसे गांव वालों को खतरा बना रहता है।

एनआरबीसी के खुलने के पहले तक यहां के बच्चे ‘बांधापारा’ या फिर ‘सरभोका’ के सरकारी प्राथमिक स्कूल में जाते थे। इन दोनों ही स्कूलों की दूरी क़ाफ़ी है। एस्पायर ने पहली बार जब यहां के बच्चों की शैक्षिक स्थिति जानने के लिए सर्वे किया तो पता चला कि अधिकतर बच्चों का या तो स्कूल में दाख़िला ही नहीं कराया गया था या फिर दाख़िला कराया भी गया था तो बच्चा अगले एक-दो साल में स्कूल जाना छोड़ देता था। सर्वे रिपोर्ट से पता चला कि 6 से 14 वर्ष के 26 बच्चे स्कूल ड्रॉपआउट थे। पिछले एक जुलाई से अभी यह सभी बच्चे एनआरबीसी में नियमित रूप से जा रहे हैं। एनआरबीसी सेंटर को खोलने के लिए समुदाय के सहयोग की ज़रूरत होती है और यहां के लोग काफी लम्बे समय तक अपने गांव में स्कूल खोलने की लड़ाई लड़ते रहे हैं। गांव वाले कहते हैं कि ‘कुछ साल पहले सरकार ने हमारे गांव में एक स्कूल खोलने की बात की थी लेकिन फिर किन्हीं कारणों से वो स्कूल नहीं खुल पाया। लेकिन इस बार हमने ‘एस्पायर’ और ‘द हंस फाउंडेशन’ की मदद से, एक स्तर तक यह लड़ाई जीत ली है। ‘एस्पायर’ ने एनआरबीसी सेंटर के रूप में, हमारे गांव में एक छोटा सा ‘स्कूल’ दे कर हमारी लड़ाई को आगे ले जाने में एक ज़रूरी मदद की है। उम्मीद है कि एक दिन हम सरकार से अपने गांव के लिए स्कूल ले ही लेंगे।’ एस्पायर का हमेशा से यह मानना रहा है कि ‘सभी समुदायों में बदलाव लाने की इच्छा और क्षमता होती है हमें बस उनकी पहलकदमी को सहयोग करने की ज़रुरत होती है न कि उनकी पहलकदमी हमें ले लेने की।’ इसीलिए वह पंचायतों के साथ स्कूल, मैनेजमेंट कमेटी के साथ अध्यापक अभिभावक संघों के साथ मिलकर उनको मजबूत करते हुए यह सुनिश्चित करता है कि शिक्षा के क्षेत्र में वे हर तरह से आत्मनिर्भर हो सकें।

बच्चों की वास्तविक स्थिति जानने के लिए घर-घर जाते हुए एस्पायर के कर्मचारी।

बाएं: शुरुआत में कई दिनों तक यह एनआरबीसी एक पेड़ के नीचे चलता रहा था। दाएं: लेकिन बाद में गांव के लोगों ने अपनी पहलकदमी से इसे हर मौसम में चलने वाले एक सेंटर में बदल दिया।

एनआरबीसी एक ऐसी संरचना है जहां बच्चों को उनके परिवेश में रख कर, उनको उन्हीं की भाषा और संस्कृति में पढ़ा कर उनके लर्निंग गैप को पूरा किया जाता है। ख़ास तौर से बड़ी उम्र के बच्चे, जो अपनी उम्र के हिसाब से कक्षा में क़ाफ़ी पीछे रह गए हैं, उनके इस गैप को पूरा कर उन्हें उनकी उम्र के अनुसार कक्षा में नामांकन कराया जाता है। ‘एस्पायर’, इस सेंटर में न सिर्फ़ प्रशिक्षित टीचर ही रखता है बल्कि बच्चों को रचनात्मक तरीक़े से पढ़ाने के लिए समय-समय पर टीचर को उनके पढ़ाने के तरीक़े पर प्रशिक्षण भी देता रहता है और साथ ही बच्चों के लिए पुस्तकालय, उनके लिए किताबों की व्यवस्था करना, और टीएलएम की व्यवस्था करना जैसी कई सुविधाएं भी देता रहता है। एस्पायर का मिशन है कि हर एक बच्चा स्कूल में हों और कम से कम अपनी बेसिक शिक्षा (दसवीं कक्षा) को पूरी करे और मिशन की पूर्ति के लिए ‘रणनीति’ का होना जरूरी है। वह इस ज़रूरत को समझता है इसीलिए ‘हर एक बच्चा स्कूल में हो’ के ‘विजन’ को पूरा करने के लिए वह कई मोर्चों पर एक साथ काम करता है। वह मानता है कि बच्चों तक सिर्फ़ स्कूल पहुंचा देने से ही शिक्षा की समस्या हल नहीं हो जाती है बल्कि इसके लिए वहां के समुदायों को भी उत्तरदायी बनाना होगा, पंचायत स्तर के लोगों के साथ, बच्चों के माता-पिता के साथ टीचर्स के साथ मिलकर एक साथ काम करना होगा। ऐसा नहीं हो सकता है कि इनमें से किसी एक के साथ ही काम किया जाए। इसलिए एस्पायर, रणनीति के तौर पर मुख्यतः तीन पहलुओं को सामने रखता है- पहला, ‘बच्चों तक’ या ‘बच्चों को’ एक ऐसी संरचना (structure) उपलब्ध कराना, जहां वे किसी भी तरह के अभाव, भेद-भाव या डर के बिना पढ़-लिख सकें। आरबीसी, और एनआरबीसी जैसी संरचना इसी का एक उदाहरण है। दूसरा, बच्चों के पढ़ने और पढ़ाने के तरीक़े को गुणवत्तापूर्ण बनाना ताकि शिक्षा उनके लिए ज़्यादा से ज़्यादा सहज और सरल हो सके। तीसरा, उस पंचायत और उन समुदाय के लोगों को शिक्षा के प्रति उत्तरदाई बनाना ताकि भविष्य में वे शिक्षा को लेकर आत्मनिर्भर हो सकें।

एनआरबीसी में पंद्रह अगस्त के दिन बच्चे और गांव के लोग

अभी इस सेंटर को खुले हुए मात्र तीन महीने ही हुए हैं और एक बच्चे को शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ा भी जा चुका है। एनआरबीसी टीचर आराधना यादव बताती हैं कि ‘हमारे सेंटर में ज़्यादातर ऐसे बच्चे आते हैं जो स्कूल ड्रॉप आउट होते हैं। उन्होंने अपना अधिकतर समय जंगल में जानवर चराते हुए बिताया होता है। इन्हें एक स्कूली माहौल में बैठ कर पढ़ाई करने में बेहद मुश्किल होती है। लेकिन हमारे पढ़ाने के तरीक़े बाक़ी स्कूलों से अलग हैं जिसमें हम बच्चों की इच्छा के अनुसार और उन्हें उनकी भाषा में पढ़ाते हैं। रचनात्मक शैक्षणिक गतिविधियां और टीएलएम का इस्तेमाल, बच्चों के लिए उनकी शिक्षा को बेहद रोचक और आसान बना देती हैं, विशेष तौर पर बड़ी उम्र के बच्चे इन तरीकों से ज़्यादा जल्दी से अपने लर्निंग गैप को पूरा कर पाते हैं।’ एस्पायर और टीएचएफ ने मिलकर ब्लॉक ‘पोंडी उपरोड़ा’ की 11 पंचायतों में 11 एनआरबीसी सेंटर खोला है, जिसमें अभी तक कुल 301 बच्चों को नामांकन किया जा चुका है। इसके साथ ही अभी तक कुल 118 बच्चों को शिक्षा की मुख्य धारा के साथ जोड़ा भी किया जा चुका है।

एनआरबीसी का तीन महीने तक का सफ़र.. एनआरबीसी के खुलने के पहले गांव के अधिकतर बच्चे जानवर चराते हुए या इधर-उधर घूमते हुए मिलते थे। अभी सभी बच्चे या तो स्कूल में या फिर एनआरबीसी सेंटर में होते हैं या फिर नियमित रूप से स्कूल जा रहे होते हैं।

‘सविता’ (एनआरबीसी स्टूडेंट) के पिता ‘गोबर्धन’ कहते हैं कि ‘यह सेंटर गांव में होने से बच्चे तो हमेशा हमारी आंखों के सामने होते ही हैं साथ ही पढ़ाई की गतिविधियों पर भी हम सब की नज़र रहती है। इससे हम काफी कुछ सीखते हैं और ज़रूरत के समय बदलाव भी करते हैं। संनिता (एनआरबीसी स्टूडेंट) के पिता ‘राजाराम’ कहते हैं कि ‘बच्चों को जिस तरह से अलग-अलग गतिविधियों और स्टडी मैटेरियल के माध्यम से पढ़ाया जाता है, उसे देखकर एक भरोसा बनता है और बहुत खुशी होती है। बच्चे घर पर भी सेंटर में सिखाई गई कविताओं को गाते रहते हैं। शिक्षा को इस तरीक़े से भी दिया जा सकता है यह हम पहली बार देख और सीख रहे हैं’। सुद्धू राम कहते हैं कि ‘एस्पायर जब तक नहीं आया था तो हमारे बच्चे घर के कामों में हाथ बटाते, बैल, बकरी चराते हुए ज्यादातर समय यहां-वहां घूमते दिखाई देते थे, अब यह सभी बच्चे सेंटर में होते हैं। आज के समय में यह हम सब के लिए एक बड़ी उपलब्धि है कि हमारे गांव का एक भी बच्चा स्कूल से बाहर नहीं है। हमारी कोशिश रहेगी कि यह बच्चे आगे और पढ़े’, वो बिलासपुर, रायपुर के कॉलेजों में पढ़ने जाएं। चुनभट्ठी से बिलासपुर यूनिवर्सिटी की दूरी बमुश्किल 100 किमी होगी। एस्पायर को यह उम्मीद है कि ज़रूर एक दिन इस गांव के बच्चे यह दूरी भी तय कर लेंगे।