Search
Close this search box.

सुरेश मुंडा की संघर्ष यात्रा…

सुरेश मुंडा की
संघर्ष यात्रा

आज़ादी के 76 साल बाद भी भारत के दूर-दराज़ इलाक़ों में ऐसे गांव हैं जो तमाम बुनियादी सुविधाओं से बहुत दूर हैं। हालांकि यह दूरी, चांद की दूरी से कहीं कम है लेकिन फिर भी इसे अभी तक नापा नहीं जा सका है। उड़ीसा के 47000 गावों में कई ऐसे गांव हैं जो अभी भी शिक्षा की कतार में खड़े अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे हैं। इन्हीं में से एक गांव ‘गुगुधरी’ है।

 गुगुधरी गांव के खेत और जंगल

क्योंझर जिले के मुख्यालय से ‘गुगुधरी’ गांव की दूरी इतनी भी नहीं है कि बेहतर शिक्षा के लिए उन्हें पीढ़ियों तक इंतज़ार करना पड़े। कुछ लोगों की नज़र में यह इलाक़ा हाथियों की मौजूदगी के कारण विकास में पिछड़ गया है। अब यह अलग बात है कि खनिज के रूप में यह इलाक़ा ‘उनके’ लिए बेहद ‘रिच’ है! बस शिक्षा और विकास को ही ‘हाथियों’ से डर लगता है। बेहतर जीवन की तलाश में यहां के ज़्यादातर लोग पलायन कर गए हैं, लेकिन कुछ लोग वहीं रह गए हैं, किसी विकल्प की तलाश में या किसी विकल्प को बनाने की ज़द्दोज़हद में। आज भी यहां पर मेडिकल सुविधा नहीं है। गर्भवती महिलाओं और बच्चों के ज़रूरी स्वास्थ्य की कमी, कई बार यहां के लोगों के मन पर गहरे घाव कर जाती है, जिसको भरने में पीढियां चुक जाती हैं। कम उम्र में शादी और बाल मज़दूरी आज भी यहां की हक़ीक़त है।
गुगुधरी एक ऐसी जगह जो ग़रीबी में जकड़ी हुई है, यहां होने वाली थोड़ी-बहुत खेती साल के कुछ महीनों के लिए राशन का इंतज़ाम तो कर जाती है लेकिन बाक़ी का इंतज़ाम और नक़दी के लिए उन्हें पूरी तरह वनोपज पर निर्भर रहना पड़ता है।

बाएं: गांव की तरफ़ जाता हुआ कच्चा रोड जिसके दोनों तरफ़ के जंगल काट दिए गए हैं   दाएं :सुरेश और गांव के अन्य लोग खेत में काम करते हुए। गांव में बहुत कम लोगों के बचे होने के बावजूद, इन इलाक़ों में अभी सामूहिक रूप से एक दूसरे के खेतों में काम करने की परंपरा बची हुई है

इस तरह के हालात के बीच कुछ लोग होते ही हैं जो उस परिस्थिति में रहने से इनकार कर देते हैं, उन कुछ लोगों में से एक नाम मुख्य तौर पर लिया जा सकता है, सुरेश मुंडा। सुरेश के परिवार में उनके पिता और एक भाई और एक बहन है। इलाज के अभाव में मां की काफी पहले मौत हो चुकी थी। उस समय सुरेश की उम्र 12 साल की थी और वो सातवीं कक्षा में पढ़ रहा था। मां का जाना उस पूरे परिवार के लिए और ख़ास कर सुरेश के लिए एक बड़ा सदमा था। इस सदमें ने पिता को पीने का आदी बना दिया और उसकी बहन डिप्रेशन में चली गई। इस स्थिति में पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी उसके बड़े भाई ‘तपन मुंडा’ के कंधों पर आ पड़ी। काम के लिए तपन को गांव से बाहर जाना पड़ा। इन हालात में सुरेश अपने आपको अकेला महसूस करने लगा। वह अपना ज्यादातर समय जंगलों में बिताने लगा था। खाने के लिए भी वह बमुश्किल ही घर आता। उसने पढ़ाई भी छोड़ दी थी। उसे आगे के सारे रास्ते बंद नज़र आ रहे थे। सरेश अपने उन दिनों को याद करते हुए बताते हैं “मां की मौत के साथ न सिर्फ़ मैंने उनका प्यार खोया बल्कि मैं अपना सबसे क़रीबी मार्गदर्शक भी खो दिया था, मेरा आत्मविश्वास पूरी तरह टूट चुका था। मैं पढ़ाई छोड़ कर ख़ानाबदोश जीवन जीना शुरू कर दिया था।”

सुरेश अपने खेत में काम पर जाते हुए

इसी समय सुरेश के बड़े भाई की मुलाक़ात एस्पायर के साथियों से होती है और यह मुलाक़ात किसी ‘उम्मीद’ की तरह थी, एक ऐसी ‘उम्मीद’ जहां से शायद एक नए जीवन की शुरुआत हो सकती थी। इस तरह के सुदूर इलाक़ों में बच्चों की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को बनाए रखने के लिए एस्यापर देश के कई हिस्सों में पिछले कई सालों से काम करता रहा है और यह काम वह स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर करता रहा है। तपन की एस्पायर के साथियों से मुलाक़ात ‘मुंडा’ परिवार और वहां के बच्चों की शिक्षा में बड़े बदलाव लेकर आती है। तपन को उसके अपने ही समुदाय में एनआरबीसी के शिक्षक के रूप में चुन लिया गया था। यह सेंटर मुख्यतः उन बच्चों के लिए होता है जिनकी पढ़ाई किन्हीं भी वजहों से छूट गई होती है या फिर वह कभी स्कूल नहीं गए होते हैं। तपन के भाई सुरेश की तरह उस गांव में और भी कई ऐसे बच्चे थे जिनकी पढ़ाई को दुबारा से शुरू करने की ज़रूरत थी। ‘एस्पायर’ के नेतृत्व में पढ़ाने के नए तरीक़े और संसाधनों के साथ, तपन यह काम पूरे जोश से शुरू करते हैं, और करें भी क्यों नहीं, क्योंकि इस एनआरबीसी क्लास में उन्हीं के समुदाय के बच्चे तो थे। ‘एस्पायर’, मुंडा परिवार की छोटी सी आय का ज़रिया बना और साथ ही सुरेश की पढ़ाई दुबारा शुरू करने का ज़रिया भी।
सुरेश को अपनी आगे की पढ़ाई के लिए 12 किमी दूर जाना था और वह भी जंगलों वाले रास्ते से, जिस पर कि हाथियों के आने-जाने का लगातार डर बना रहता था। ऐसे में तपन ने एक साईकिल की व्यवस्था की ताकि वह स्कूल जा सके। उसने कड़ी मेहनत से अभी पिछले साल ही मैट्रिकुलेशन परीक्षा में सफलता प्राप्त की थी। तपन कहते हैं, “हमारा गांव सरकार की नज़रों और उनकी सुविधाओं से बहुत दूर है, तो ऐसी स्थिति में यह हम नौजवानों की ज़िम्मेदारी बन जाती है कि एक बेहतर भविष्य के लिए हम अपने समुदाय का हर स्तर पर नेतृत्व करें, यह हमने एस्पायर में रहते हुए सीखा है और अभी भी सीख रहे हैं।”
सुरेश का संघर्ष इस रूप में कोई नया और अद्वितीय नहीं है। कई छात्र इसी तरह की चुनौतियों का सामना करते रहे हैं, जिन्हें सड़कों के आभाव और जंगली जानवरों की मौजूदगी के कारण अपनी पढ़ाई को छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है। उनके मां-बाप को अपने बच्चों की सरकारी आवासीय स्कूलों में दाख़िला से संबंधित जानकारी ही नहीं मिल पाती है। ऐसे में ‘एस्पायर’ का यह एनआरबीसी प्रोग्राम इन दूर-दराज़ के समुदायों में स्कूल न जा पाने वाले इन बच्चों के लिए एक बड़ी उम्मीद के रूप में उभर कर आया, जो उन्हें सफलतापूर्वक स्कूल पूरा करने की दिशा में मार्गदर्शन करता रहा था। एक साल के अंदर ही इस एनआरबीसी के सारे बच्चों के लर्निग गैप को पूरा कर उन्हें शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ दिया गया था। वर्तमान समय में वहां एक भी बच्चा स्कूल से बाहर नहीं है।

गुगुधरी गांव का एनआरबीसी सेंटर, सुरेश ने अपनी छूटी हुई पढ़ाई को दुबारा यहीं से शुरू किया था। इसकी शुरुआत एस्पायर ने वहां के स्थानीय समुदाय को साथ में लेकर शुरू किया था।

2022 में, सुरेश ने गुगुधारी सरकारी स्कूल में एस्पायर के फाउंडेशनल लिटरेसी एंड न्यूमेरेसी (एफएलएन) कार्यक्रम के तहत एक जूनियर वालंटियर टीचर के रूप में अपने यहां के बच्चों को शिक्षित करने का काम शुरू किया। इस प्रोग्राम का उद्देश्य भी प्राइमरी स्कूल के बच्चों की शिक्षा के बीच आए अंतराल को ख़त्म करना था। सुरेश इस काम की गंभीरता को समझते थे, इसीलिए वह 21 किलोमीटर दूर ‘सरगिटलिया’ गांव में नाईट शिफ्ट की सुरक्षा गार्ड की थका देने वाली नौकरी के बाद भी अपने यहां के बच्चों को पढ़ाने का काम शुरू कर दिया। इसके वह साथ-साथ सरकारी शिक्षकों को गणित और भाषा जैसे विषयों को पढ़ाने में उनकी मदद भी कर रहे थे। सरकारी स्कूल के शिक्षक सुरेश की मेहनत के क़ायल थे। वे यह कहते भी थे कि सुरेश उनके उच्च वेतन प्राप्त शिक्षकों से भी कहीं बेहतर पढ़ाते हैं।

बाएं:बच्चों के साथ स्कूल जाते हुए सुरेश दाएं: बच्चों की वर्तमान स्थिति जानने के लिए घर-घर जाते हुए सुरेश।

एफएलएन कक्षा।

टीचर और सामाजिक कार्यकर्ता बनने का सपना संजोये हुए सुरेश, उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि, ” मां की मौत के बाद मेरी ज़िंदगी रुक सी गई थी, उस समय मुझे ऐसा लग रहा था कि सब समाप्त हो गया है, मेरा जीवन बेकार हो गया है! लेकिन बाद में मेरे अंदर क़ाफ़ी बदलाव आया। अब मैंने तय किया है कि अपनी इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी करने के बाद, मैं टीचर बनने के लिए अपनी पढ़ाई जारी रखूंगा और बचे हुए समय में अपने गांव के लिए जो भी कुछ बन पड़ेगा करूंगा।

एक सामान्य व्यक्तित्व से प्रेरक शिक्षक तक का सफ़र।

सुरेश की यह यात्रा उन तमाम लोगों के लिए एक शानदार उदाहरण है जो अपने लिए, समाज के लिए कुछ करने की सोचते हैं या करना चाहते हैं। वे अपने प्रयासों और एस्पायर जैसे संगठनों के सहयोग से न केवल गुगुधरी बल्कि हाशिए पर रह रहे तमाम लोगों के बच्चों की शिक्षा में छोटे-छोटे ही सही, लेकिन बेहद महत्वपूर्ण और ज़रूरी बदलाव कर रहे हैं।