रतलाल जी की आँखें अक्सर उनके अपने गांव ‘बोड़ानाला’ के सरकारी स्कूल की इमारत की ओर घूम जाती थीं, जो गांव की शिक्षा के प्रति उदासीनता का प्रतीक बनी हुई थी। सालों तक यह बस एक ढांचा मात्र था, जहां बच्चे आते, कक्षा में बैठते और बिना किसी लगाव के घर लौट जाते।
रतलाल जी केवल गांव की शिक्षा की स्थिति को लेकर ही चिंतित नहीं थे, बल्कि परिवार की परेशानियां भी उनके मन में गहरी थीं। बेटी, दुर्गेश्वरी, बड़ी हो रही थी और वे जानते थे कि शिक्षा ही उसके उज्जवल भविष्य की कुंजी थी।
गांव ‘बोड़ानाला’, छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में स्थित है। घने जंगलों और सतरेंगा जैसे फेमस टूरिज्म स्पॉट के बीच यह गांव शायद नक्शे में ढूंढना मुश्किल हो, लेकिन यहां के लोग, उनकी कहानियां, और उनकी जिजीविषा आपको हर मोड़ पर चौंकाएगी।
मंझवार समुदाय के इस छोटे से गांव में लोगों की जिंदगी का आधार मछली पकड़ना और जंगल से मिलने वाली वनोपज है। कुछ दशक पहले बांगो बांध के निर्माण ने इनके जीवन पर गहरा प्रभाव डाला था, इनकी खेती वाली जमीनें डूब में चली गई थीं। इनके जीविका के साधन सीमित हो गए थे। लेकिन चुनौतियों के बावजूद, रतलाल जी ने अपने परिवार को पालने के लिए नए रस्ते खोजे।
वे जानते थे कि बदलाव आसान नहीं होगा, लेकिन वे इसे संभव बनाने के लिए हर संभव कोशिश कर रहे थे। मछली पकड़ने के साथ ही वे बची हुई थोड़ी जमीन पर खेती भी करते, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत मिट्टी काटने का काम भी करते और महुआ, चार फल, तेंदू पत्ते जैसे मौसमी वन उत्पादों को इकट्ठा भी करते। उनकी जीवटता और मेहनत उनके मजबूत व्यक्तित्व का प्रमाण थी।
आर्थिक कठिनाइयों के कारण शिक्षा उनके परिवार में कभी प्राथमिकता नहीं रही। रातलाल जी तीसरी कक्षा के बाद स्कूल छोड़ने को मजबूर हो गए, उनकी पत्नी रामवती छठी कक्षा तक पढ़ीं, उनकी माँ निरक्षर हैं और उनके छोटे भाई संतलाल केवल आठवीं तक पढ़ पाए। उनके भाई की पत्नी भी अधिक नहीं पढ़ सकीं। लेकिन उनकी बेटी दुर्गेश्वरी जो गांव के ही स्कूल में दूसरी कक्षा में पढ़ रही है, उसको आगे पढ़ाने को लेकर वे प्रतिबद्ध हैं। रातलाल जी यह मानते हैं कि शिक्षा गरीबी के चक्र को तोड़ने का ज़रिया बन सकता है, कहते हैं,
“हमारे गांव में अगर कोई सबसे बड़ी कमी थी, तो वो शिक्षा की थी। कुछ बच्चे स्कूल आते तो थे और कई नहीं आते थे, जो आते थे उनके मन में भी, पढ़ने को लेकर चाह नहीं थी। मुझे हमेशा लगता था कि कुछ बदलना चाहिए।”
पर सवाल था, बदलाव कहां से शुरू हो?
एस्पायर ने इस गांव में सिर्फ एक संस्था के तौर पर कदम नहीं रखा, बल्कि बदलाव की शुरुआत करने वाले साझेदार के तौर पर आया था। एस्पायर का हमेशा से मानना रहा है कि ‘स्कूल बना देने से ही, शिक्षा की सारी जिम्मेदारियां और जरूरतें पूरी नहीं हो जाती। असली काम तब शुरू होता है, जब गांव के लोग खुद यह महसूस करें कि बच्चों की शिक्षा उनकी जिम्मेदारी है’।
लक्ष्य केवल बच्चों को पढ़ाना नहीं था, बल्कि सीखने के पूरे माहौल को बदलना था। ASPIRE ने कई स्तरों पर काम किया:
एसएमसी के वरिष्ठ सदस्य सुखसाई मांझवार बताते हैं,
“हम तो समिति के सदस्य बन गए थे, लेकिन हमें खुद नहीं पता था कि हमारा काम क्या है। एस्पायर की ट्रेनिंग से हमें नेतृत्व करना, समस्याओं की पहचान करना और समाधान ढूँढ़ना आया। अब हम केवल सदस्य नहीं, बल्कि अपने बच्चों की शिक्षा के संरक्षक बन गए।”
गांव में बदलाव की बयार तब और तेज हुई जब स्कूल प्रबंधन समिति (एसएमसी) ने मासिक बैठकें शुरू कीं, जिसमें हर बच्चे की प्रगति पर नज़र रखी जाने लगी। वे उन परिवारों से मिलने जाते, जिनके बच्चे स्कूल नहीं आ रहे थे, और उन्हें धीरे-धीरे वापस स्कूल लाने के लिए प्रेरित किया जाने लगा।
एक और साहसिक कदम उठाते हुए गांव के कुछ लोगों ने नशा विरोधी अभियान भी शुरू किया, जिससे अवैध शराब की बिक्री पर रोक लगाई गई, जिसने वर्षों से समुदाय को प्रभावित कर रखा था। समयलाल, गांव के वरिष्ठ वार्ड पंच कहते हैं,
“पहले हमें लगा था कि ये सब संभव नहीं है। लेकिन जब हमने देखा कि बच्चों की पढ़ाई में सुधार हो रहा है, स्कूल में उपस्थिति बढ़ रही है, तब हमें महसूस हुआ कि हमारे पास बदलाव लाने की ताक़त है।”
वर्तमान में सिर्फ़ छत्तीसगढ़ में ही एस्पायर ने 254 स्कूल प्रबंधन समितियों को सशक्त बनाया है, जिसमें 3,256 सदस्य शामिल हैं। ये सदस्य बच्चों की शिक्षा और अधिकार को लेकर जागरूकता बढ़ाने के लिए प्रशिक्षित किए गए हैं। अभी तक कुल 207 ओरिएंटेशन ट्रेनिंग आयोजित किए जा चुके हैं। और यह आंकड़ा छत्तीसगढ़ के सिर्फ़ एक ब्लाक की 77 पंचायतों का है।
पर बदलाव का सफर, कभी भी आसान नहीं होता है। अभी पिछले साल ही, जो एस्पायर वॉलंटियर बच्चों को पढ़ा रही थीं, अस्पताल में प्रसव के दौरान अचानक उनकी मौत हो गई। इस गांव के लिए और स्कूल के लिए यह बड़ा झटका था। वे गांव के लोगों और बच्चों के बीच बेहद लोकप्रिय थीं। एसएमसी के लोगों ने जल्द ही अपने आपको इस कठिन परिस्थिति से निकाल लिया। उन्होंने तुरंत एस्पायर से संपर्क किया, और जल्द ही एक नई वॉलंटियर, ईश्वरी जी, की नियुक्ति हो गई।
आज, इस छोटे से स्कूल में 37 बच्चे पढ़ रहे हैं इसको इस तरीके से भी कहा जा सकता है कि गांव के सभी बच्चे स्कूल में पढ़ रहे हैं और उनकी उपस्थिति 97% तक पहुंच गई है। इनमें से चार बच्चों ने नवोदय की परीक्षा दी है, और पूरा गांव उनकी सफलता की उम्मीद कर रहा है।
रतलाल जी की आंखों में एक नई उम्मीद चमक रही है। वे कहते हैं,
“हमारा सपना है कि यह स्कूल, आस-पास के स्कूलों में एक मिसाल के रूप में उभरे मॉडल स्कूल बने। बच्चे पढ़ें, खूब पढ़ें और आगे बढ़कर इस गांव का नाम रोशन करें।”
अब तक, ब्लॉक पोड़ी उपरोड़ा की 77 पंचायत में कुल 1,275 बच्चों को शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ा जा चुका है, और 269 बच्चे आवासीय और गैर आवासीय ब्रिज कोर्स सेंटर्स में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।
प्रधानाध्यापक ‘टीकाराम जी’, मानते हैं कि एस्पायर की मदद से उनके शिक्षण दृष्टिकोण में बहुत बदलाव आया है।
“उनके रचनात्मक शिक्षण-सामग्री प्रशिक्षण ने मेरी पढ़ाने की शैली बदल दी है।”
टीकाराम जी का सपना है कि उनका स्कूल पूरी तरह से डिजिटलाइज़ हो जाए, अगर ऐसा हुआ तो यह पूरे छत्तीसगढ़ का शायद पहला स्कूल होगा, जहां बच्चे ई-पुस्तकें, वीडियो, ऑडियो, एनीमेशन, वीडियो स्टोरी आदि के ज़रिए अध्ययन कर पायेंगे।
बोड़ानाला का यह स्कूल अब सिर्फ ईंट-पत्थर की इमारत भर नहीं है, यह उम्मीद की एक कहानी है जो यह साबित करता है कि जब समुदाय अपने अधिकार और जिम्मेदारी को समझ लेता है और अन्य भागीदारों के साथ मिलकर काम करता है, तो किसी भी तरह का बदलाव मुमकिन हो जाता है।