भुवन सिंह धनवार, ‘हमें पता है कि उस दिन हमने कैसे समझौता किया है, 80 में जब डैम में पानी भरने लगा था तो हमें सब कुछ छोड़ कर, इस रनई पहाड़ पर भागना पड़ा था। नीचे हमारे घर, खेत-खलिहान, चारागाह, बच्चों के खेलने के मैदान सब कुछ डूब चुके थे।’ धीर साय कहते हैं कि, ‘एक तरफ जहां बांगोबांध बनने से असंख्य लोगों का जीवन संवर गया वहीं दूसरी तरफ हमारा घर उजड़ गया’।
छत्तीसगढ़ को दी गई उपाधि “धान का कटोरा” में, इस बांगोबांध (Bango Dam) की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह बांध कोरबा जिला की हसदेव नदी पर निर्मित है और वहीं के छोटे से गांव ‘रनई पहाड़’ के लोगों की यह दास्तां है। यहां अभी भी बच्चों की शिक्षा के लिए आंगनबाड़ी केंद्र तक नहीं है। यहां की कई पंचायतें डूब से प्रभावित रही हैं और यह पूरा इलाका घने जंगलों से घिरा हुआ है जो छत्तीसगढ़ के सबसे दूरस्थ इलाकों में से एक है।
हसदेव नदी की घाटी में रहने वाले तमाम गांव डूबने से बचने के लिए अब पहाड़ों के ऊपर रहने लगे थे। जहां उनके घर डूबने से सुरक्षित तो थे लेकिन घने जंगल, पहाड़ों की उंचाई और ठीक से रास्तों के न होने की वजह से तमाम बुनियादी सुविधाओं से कट चुके थे। जिसमें से एक महत्वपूर्ण बुनियादी सुविधा ‘शिक्षा’ थी।
भुवन सिंह जी बड़ी निराशा के साथ कहते हैं कि ‘जैसे तैसे हम पहाड़ पर चढ़ गए और वहीं अपनी झोपड़ी बनाकर रहने लगे। हमारी पूरी ज़िंदगी इन्हीं जंगलों में यहां-वहां भटकते हुए गुज़री है, हमें लगता था कि हमारे बच्चों का भी यही भविष्य होने वाला है’। इसी गांव के जुकसाय अपना अनुभव बताते हुए कहते हैं, “खोपखर्रा प्राइमरी स्कूल, जो साखो पंचायत में ही आता है, मेरे गांव से लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर है। मैं गांव के अन्य लडकों के साथ पढ़ने जा रहा था कि अचानक हाथियों का एक झुंड हमारे सामने आ खड़ा हुआ। हम सब डर से कांपने लगे, भगवान की दया से हाथियों ने कुछ नहीं किया। लेकिन अब हमारे लिए इनती दूर स्कूल जाना संभव नहीं था।” वहीं पास में बैठे बच्चों से पूछने पर कि जब स्कूल नहीं है तो वह दिन भर क्या करते हैं? ओम प्रकाश और लक्ष्मीन, दोनों की उम्र लगभग 8 या 9 साल है, ने कहा ‘जंगलों से लकड़ी लाते हैं और भैंस, बकरी चराते हैं’। राधा कहती है कि ‘मैं ‘धवई फूल’ तोड़ती हूं और ‘कउवा गोड़ी’ की खुदाई करती हूं’। छत्तीसगढ़ के जंगलों में कई तरह की जड़ी-बूटियां मिलती हैं, ‘धवई फूल’ और ‘कउवा गोड़ी’ उनमें से एक है। यह स्थानीय बाजारों से लेकर रायपुर तक के बाज़ारों में बिकती है। इसे छत्तीसगढ़ के प्रमुख वनोपज के रूप में गिना जाता है, जो वहां के आदिवासियों की आय का एक प्रमुख ज़रिया भी है।
एस्पायर का इस तरह के दुरूह इलाकों में बच्चों की शिक्षा पर काम करने का पुराना अनुभव रहा है। उसने दिसंबर, 2022 में इस इलाके के बच्चों की शिक्षा पर काम करना शुरू किया था। गांव वालों के साथ शुरुआती बैठकों में पता चला कि बजरंग सिंह पैकरा, खण्ड विकास परिषद् सदस्य, बच्चों की शिक्षा के लिए काफी लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं। बजरंग सिंह जी कहते हैं ‘बीडीसी सदस्य होने के नाते मेरा कर्तव्य बनता है कि मैं उनका हक दिलाऊं। यहां स्कूल खुलवाना तो मेरे लिए असंभव था लेकिन कुछ बच्चों को अपने रिश्तेदारों के घर रखकर पढ़ाई करवा रहे हैं’। बजरंग जी की इस कोशिश के बाद भी एस्पायर के सर्वे में यहां 54 ऐसे बच्चे मिले, जो स्कूल नहीं जा रहे थे।
एस्पायर का हमेशा से यह प्रमुख एजेंडा रहा है कि स्थानीय जन-प्रतिनिधियों और लोगों को शिक्षा के प्रति जिम्मेदार बनाया जाए और उनके साथ मिलकर शिक्षा की लड़ाई को आगे ले जाया जाए। इसी प्रक्रिया में उसने जन-प्रतिनिधियों और गांव वालों के साथ मिलकर आउट ऑफ स्कूल बच्चों की शिक्षा के लिए एक ‘ग़ैर आवासीय ब्रिज कोर्स’ (Non Residential Bridge Course) सेंटर खोलने की शुरुआत की। जिसमें एस्पायर ने 2 प्रशिक्षित टीचर, किताबें, बच्चों के लिए लाइब्रेरी और टीएलएम आदि चीजें उपलब्ध कराईं, तो वार्ड सदस्य रामरतन जी ने NRBC सेंटर के लिए अपना घर उपलब्ध करा दिया। इस तरह बच्चों की पढ़ाई शुरू हो गई। टीचर्स द्वारा बच्चों को कविता, कहानी, चुटकुले, रंगोंमेट्री, टीएलएम, राइम्स जैसी गतिविधियों के माध्यम से बच्चों को पढ़ाया जाने लगा।
दो महीने बाद बच्चों की नियमितता और उत्साह देखकर अन्य स्थानीय जन-प्रतिनिधि बजरंग सिंह पैकरा (बीडीसी सदस्य), प्रिंस अग्रवाल (MLA प्रतिनिधि), अश्वनी कुमार (चौकी थाना प्रभारी) द्वारा बच्चों को ड्रेस और जूते दिए गए। लोगों की भागीदारी यहीं तक सीमित नहीं थी, NRBC टीचर शिव शंकर बताते हैं कि गांव के समुदाय को जागरूक करने के लिए बाल मेला भी खूब जोर-शोर से किया गया। प्रतिमाह बच्चों की प्रोग्रेस रिपोर्ट को लेकर बैठक होने लगी। इसी एक बैठक में यह बात भी तय हुई कि बच्चों के पढ़ने के लिए थोड़ी और बड़ी जगह चाहिए। इसके लिए गांव के लोगों के श्रमदान से लकड़ी और छिंद की पत्तियों से बहुत ही सुंदर मकान तैयार किया जा रहा है। एस्पायर हमेशा से यह मानता रहा है कि लोगों में बदलाव की इच्छा होती है, बस अगर उसे कुछ ज़रुरत है तो थोड़े से सहयोग की। वह आम जनता की पहलकदमी को खोलने में विश्वास रखता है।
इसी सामूहिक पहलकदमी का ही नतीजा था कि समुदाय के लोगों और जनपद सदस्यों ने मिलकर स्कूल संचालन की डिमांड कलेक्टर से की और कोरबा कलेक्टर के निर्देश पर NRBC सेंटर के सभी बच्चों को RTE के तहत शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए नजदीकी प्राइमरी स्कूल खिर्टि (6 किमी दूर) में नामांकन के लिए निर्देश दे दिया गया। लेकिन स्कूल की दूरी अधिक होने के कारण लोगों ने नामांकन कराने से साफ इंकार कर दिया। गांव के लोगों ने कहा कि ‘6 किमी दूर जंगल और जानवरों का सामना करते हुए, हमारे बच्चे स्कूल कैसे जा पाएंगे?’ वे गांव में ही स्कूल का संचालन कराने पर अड़ गए। कोरबा कलेक्टर को गांव के लोगों की बात माननी ही पड़ी और यह तय किया गया कि जब तक इस गांव में स्कूल खुल नहीं जाता, तब तक बच्चों को इसी एनआरबीसी सेंटर, रनई पहाड़ी में सभी सुविधाएं मिलती रहेंगी।
‘रनई पहाड़ी’ के लोग अब काफी जागरूक हो चुके हैं। उन्होंने गांव के ही एक वार्ड सदस्य ‘रामरतन जी’ को NRBC सेंटर के निरीक्षक के रूप में चुना है। रामरतन जी, एस्पायर के ज़रिए उड़ीसा में पीआरआई एक्सपोज़र विजिट का हिस्सा भी रह चुके हैं, जहां पर उन्होंने 5 दिन का प्रशिक्षण भी लिया है। इतना ही नहीं उनकी पत्नी ‘नीरा बाई धनवार’, यदि NRBC टीचर्स के द्वारा कोई लापरवाही पाती हैं, तो वे तुरंत इसकी सूचना एस्पायर कार्यालय को देती हैं।
आज इस सेंटर को चलते हुए लगभग सवा साल से ज्यादा हो गए हैं और अब रनई पहाड़ का एक भी बच्चा शिक्षा से वंचित नहीं है। भले ही इस गांव के पास अभी भी कोई सरकारी स्कूल नहीं है लेकिन एस्पायर और द हंस फाउंडेशन की मदद से उनके पास एक ऐसा ढांचा है जिसे ‘रनई पहाड़ का एनआरबीसी सेंटर’ कहा जाता है। इस सेंटर के पास मध्यान्ह भोजन से लेकर ड्रेस, किताबें-कापियां, बच्चों के लिए किताबों की छोटी सी लाइब्रेरी और खाना बनाने के लिए एक दीदी भी हैं, जो बच्चों के लिए मध्यान्ह भोजन बनाती हैं। एनआरबीसी स्टूडेंट ‘राधा’ की मां ‘नीरा बाई’ कहती हैं कि, ‘हमने कभी नहीं सोचा था कि इस जंगल में, घंटों पहाड़ी चढ़ कर, कोई ऐसी संस्था आएगी जो बच्चों को पढ़ाएगी और नई दुनिया के बारे में बताएगी।’ ‘ओम प्रकाश’ (एनआरबीसी छात्र) के पिता ‘शिवराम’ कहते हैं, ‘हमारे बच्चों ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा था, कैसे पढ़ाया जाता है? पढ़ने से क्या होता है? न उन्हें कुछ पता था और न ही हमें.., हमारे बच्चे बाहर से आए हुए अधिकारियों/लोगों को देखकर भागने लगते थे, लेकिन आज इस सेंटर की वजह से हमारे बच्चों की स्थिति बदल रही है और उनके साथ-साथ हम भी बदल रहे हैं।’
रनई पहाड़ भले ही काफी ऊंचा हो, लेकिन वहां के लोगों के हौसलों से ज्यादा उंचा नहीं है। आज के समय में हम सभी के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है कि सरकारी स्कूल नहीं होने के बावजूद ‘रनई पहाड़’ का एक भी बच्चा शिक्षा से वंचित नहीं है। ‘रनई पहाड़’ जैसे देश के और कई आदिवासी गांव हैं जहां के बच्चों को इस तरह के स्ट्रक्चर की ज़रुरत है, जहां पर वे बिना किसी भय या अभाव के अपने सपनों को बुन सकें और एक सशक्त व सजग नागरिक की तरह अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी का निर्वाह कर सकें। रनई पहाड़ के लोग आधी लड़ाई जीत चुके हैं जिसमें बच्चों की शिक्षा और मध्यान्ह भोजन जैसी कई सुविधाएं शामिल है, बाकी सरकारी स्कूल और सरकारी अध्यापक को अपने गांव में लाने की लड़ाई अभी जारी है…।