मैं अपने परिचय से शुरुआत करती हूं, मेरा नाम पद्मिनी बारीक है और मैं उड़ीसा के एक ऐसे इलाक़े से आती हूं, जहां महिलाओं को पितृसत्तात्मक समाज के चलते एक वस्तु के अलावा कुछ नहीं समझा जाता है। मैं इतनी बदकिस्मत महिला हूं कि अपनी बदहाली के बारे में बात करते हुए शब्द कम पड़ जाते हैं।
मेरी किस्मत ने उसी समय मेरा साथ छोड़ दिया था जब मां-बाप और समाज की पुरातनपंथी, अविकसित सोच के कारण मेरे विवाह का फैसला लिया गया। 17 साल की उम्र में मेरी शादी कर दी गई। उनका मानना था कि जीवन में खुशियाँ तभी आती हैं जब 18 साल की होने से पहले ही शादी कर ली जाए। लेकिन यह बात उन्हें शायद ही पता थी कि यह मरने का पूर्वाभ्यास करने जैसा ही है।
शादी के बाद 18 साल की उम्र में मेरा पहला बच्चा हुआ और 20 साल की उम्र में दूसरा। लेकिन इसी बीच में मेरे साथ एक बड़ी दुर्घटना हो गई। पति की एक कार एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई और मैं दो छोटे बच्चों के साथ इस दुनिया में अकेली रह गई। पति की मौत ने मुझे बिखेर कर रख दिया और बच्चों की परवरिश की चिंता ने इसे और भी पीड़ादाई बना दिया था।
मेरे ससुराल वाले, जो मेरे पति के दाह-संस्कार होने तक बहुत मददगार दिख रहे थे, अचानक बदल गए। उनका असली रूप अब मुझे सामने दिख रहा था। उन्होंने मुझसे मेरे इकलौते बेटे को उनके पास छोड़ कर जाने के लिए कहा, यह दावा करते हुए कि मैं उनका भरण-पोषण नहीं कर पाऊंगी। अब मैं उनके लिए बोझ बन गई थी। लेकिन कोई अपने ही परिवार में बोझ कैसे बन सकता है? मैंने अपने बच्चों के सबसे बेहतर हित के रूप में बाहर काम करने का फैसला किया और दसवीं फेल सर्टिफिकेट के साथ घर से निकल गई।
आगे का सफ़र आसान नहीं होने वाला था। घर के आप-पास कोई काम नहीं मिलने के कारण 10 किमी दूर कोइड़ा ब्लॉक में ‘आशा कार्यकर्ता’ के रूप में काम करने लगी। इसके लिए मुझे काफी दूर जाना पड़ता था और दूध पीते बच्चे के साथ यह यात्रा और भी कठिन हो जाती थी। ‘आशा कार्यकर्ता’ के रूप में होने वाली आय से बमुश्किल ही घर खर्च चल पाता था। अपनी आय को बढ़ाने के लिए मैंने सिलाई सीखनी शुरू कर दी थी। इन परिस्थितियों में बच्चों के लिए मेरे पास बिल्कुल समय ही नहीं बचता था। कई बार तो बच्चे, मेरे काम से घर लौटने तक रोते रहते थे। मैं अक्सर भगवान से प्रार्थना करती कि मुझे 24 घंटे के बजाए 30 घंटे दे दें ताकि मैं अपने बच्चों को अधिक समय दे सकूं।
लेकिन जैसे कि कहा गया है, दुःख अकेला नहीं आता, वह अपने साथ कई रिश्तेदारों को भी ले आता है। लगता था कि इन दुखों का कोई अंत ही नहीं है। लड़ते-लड़ते इस बार मैं थक चुकी थी। मैंने अपने आपको को ख़त्म करने का फैसला कर लिया था। निराशा के इस घने अंधकार के बीच, जब मैं जीवन समाप्त करने की कगार पर खड़ी थी, कि तभी मेरे दुधमुंहे बच्चे की रोने की आवाज ने मुझे उस कगार से वापस खींच लिया। मेरे भीतर की आवाज ने याद दिलाया कि बच्चों को मेरी जरूरत है, उन्हें मैं इस तरह अकेले छोड़कर नहीं जा सकती। उसी पल मैंने फैसला किया कि ‘चुनौतियां चाहे कितनी भी हो, मैं जिंदगी का सामना करूंगी’ और तभी मेरे जीवन में एक उम्मीद की रोशनी दिखाई दी।
मेरी मुलाक़ात ‘एस्पायर’ के स्टाफ ‘शिशिर’ सर (क्लस्टर फेसिलिटेटर, जोड़ा) से हुई। उन्होंने मुझे जोड़ा ब्लॉक की गर्ल्स आरबीसी के लिए एक कुक के रूप में नौकरी की पेशकश की। यह मेरी जिंदगी का एक बड़ा दिन था। जैसे ही मैंने आरबीसी में प्रवेश किया, मैं उन किशोरियों को नोटिस किए बिना नहीं रह सकी, जिन्होंने मेरी ही तरह उपेक्षा और अभाव के जीवन का अनुभव किया था। उनकी आंखें मेरे अपने संघर्षों का आईना थीं और उनकी कहानियां मेरी अपनी कहानियां थीं। यद्यपि यह नौकरी मेरे बच्चों से बहुत दूर थी फिर भी मैं ‘एस्पायर’ के साथ जुड़ गई क्योंकि यहाँ काम करते हुए न सिर्फ मैं अपने परिवार को अच्छे से पाल सकती थी बल्कि दुनिया को बदलने की इच्छा भी रख सकती थी। संगठन के सहयोग से मैंने दुबारा अपनी स्कूल की पढ़ाई शुरू की, हाई स्कूल पूरा किया और फिर उसके बाद कॉलेज में एडमीशन लिया। मेरी छूटी हुई पढ़ाई को दुबारा शुरू करना काफी कठिन था। इसको ठीक से शुरू करने के लिए मुझे काफी समय और स्पेस की जरूरत थी और संगठन ने इन चीजों के लिए मेरी खुल के मदद की।
कॉलेज से ग्रेजुएट होने के बाद, एस्पायर में ही एलईपी (लर्निंग एनरिचमेंट प्रोग्राम) शिक्षक के पद के लिए मैंने इंटरव्यू दिया, जिसमें मेरा सेलेक्शन हो गया। मुझे अपने ही गृहनगर के स्कूल में बच्चों को पढ़ाने का मौक़ा मिला था। जिस गाँव से, समाज से मैं बहुत निराश हो कर निकली थी, अब मैं उसी गाँव में, बेहद उत्साह के साथ एक टीचर के रूप में जा रही थी। एक वह दिन था जब मैंने ‘एस्पायर’ ज्वाइन किया था, एक आज है कि जब ‘एस्पायर’ मुझे उसी गाँव में, पूरे आत्मसम्मान के साथ और एक अभिमान के साथ भी, जाने का मौक़ा दे रहा था। वाकई यह मेरे लिए बड़ा दिन था। मेरा बेटा और बेटी, जो अब 13 और 10 साल के हैं, जो पैदा होने से लेकर अब तक मां-बाप के प्यार भरी छाँव से दूर थे, अब मेरे साथ हैं।
मेरे जीवन पर ‘एस्पायर’ का बहुत अधिक प्रभाव रहा है। वह एक हमराही की तरह हमेशा संघषों में साथ रहा है और मेरी सफलताओं में उसका बराबर का हाथ रहा है। मेरे ससुराल वाले, जिन्होंने एक बार मुझे अस्वीकार कर दिया था, अब मुझे और मेरे बच्चों को बहुत पसंद करते हैं, उनका विश्वास है कि मैं परिवार की सबसे भाग्यशाली सदस्य हूं। लेकिन अब मैं उनसे कहती हूँ कि ‘सुधार के लिए बहुत देर हो चुकी है’। यह सब देख कर अब मुझे लगता है कि पहले मैं अपने बारे में कितना गलत सोचती थी? अपने आपको कितना ‘अभागा’ और पता नहीं क्या-क्या।। मानती थी! लेकिन अब मुझे इस बात का एहसास है कि हम सभी के पास अपने-अपने आख्यानों को बदलने और अपने जीवन को नियंत्रित करने की ताकत और साहस दोनों है।
कई बार लोग अक्सर मुझसे पूछते हैं कि क्या मैं कभी दूसरी शादी करूंगी? यह सवाल मुझे गुस्से देता है, मैं सोचती हूँ कि क्या कभी यह पुरुष वर्चस्व वाला समाज मेरे साहस और सामर्थ्य को कभी देख पाएगा? जो दो बच्चों को अकेले पालने में लगती है?
मैं इस बात पर जोर देना चाहती हूँ कि हर किसी को जीवन में समस्याओं का सामना करना पड़ता है लेकिन अंततः यह हम पर निर्भर करता है कि हम उसका समाधान कैसे खोजते हैं! यदि एक अमीर इंसान को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है तो पूरी दुनिया उसकी मदद के लिए दौड़ पड़ती है, लेकिन यदि उसकी जगह गरीब इंसान है तो उसे, उसके हाल पर छोड़ दिया जाता है। मेरे पति के गुजर जाने के कारण समाज मुझे अभागा या बदकिस्मत के रूप में देखता था। लेकिन यदि हालात बदल जाते और पति की जगह मैं मर गई होती तो जल्द ही मेरे बच्चों को सौतेली मां मिल गई होती। हमें अपनी समस्याओं के हल के लिए खुद पर भरोसा करना सीखना होगा, भले ही वे चाहे कितनी ही कठिन क्यों न हों।
‘एस्पायर’ ने ग्रामीण भारत में अनगिनत लोगों के जीवन में बदलाव लाया है और मैं खुद इस बदलाव की जीती-जागती उदाहरण हूं। इसने न सिर्फ मुझे सक्षम बनाया है बल्कि मुझे अपने बच्चों के लिए बेहतर भविष्य प्रदान करने का दृष्टिकोण भी दिया है। अब मैं अपने बच्चों के साथ बहुत ख़ुश हूं। मेरा बेटा छठवीं में है और इंजीनियर बनना चाहता है, जबकि मेरी बेटी पांचवीं में है और वो आई।ए।एस। अधिकारी बनना चाहती है। इन बच्चों के सपनों को पूरा करने के लिए मैं अंतिम सांस तक कोशिश करती रहूंगी। मेरी कहानी बहुतों में से एक है और इस बात का प्रमाण भी कि पक्के इरादे और सही समर्थन के साथ, इंसान कठिन से कठिन चुनौतियों को भी पार कर सकता है।