मेरा नाम मायावती नेटी है, पिता लक्षमण सिंह और मां का नाम जानबाई है। मुझको लेकर परिवार में कुल सात लोग रहते हैं। मेरा घर छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में पड़ता है। मैं बहुत छोटी थी तभी से मेरे दादा-दादी अलग रहते थे और मैं उन्हीं की साथ रहती थी। मेरे पिता जी का कहना था कि ‘दादा-दादी की मदद के लिए उनके पास भी तो कोई होना चाहिए!’, हालांकि उस समय मेरी उम्र बहुत कम थी। आज जब मैं उन दिनों को याद करती हूं, तो लगता है कि इतनी छोटी उम्र में, इतनी सारी जिम्मेदारियों का बोझ क्यों डाल दिया गया था? हालांकि मैं कोई अकेली लड़की नहीं थी, जिसके ऊपर इतनी जिम्मेदारी डाल दी गई थी। हमारे समाज में ज्यादातर लड़कियों के साथ ऐसा ही होता रहा है। उन्हें छोटी-सी उम्र में ही, घर की तमाम जिम्मेदारियों को उठाना ही पड़ता है। मैं अपने गांव ‘मुकुआ’ के प्राइमरी स्कूल में पढ़ाई करती थी, लेकिन साथ ही घर का सारा काम भी करती थी जैसे- खाना बनाना, बाहर से पानी लाना, झाडू लगाना, बर्तन धोना और भी कई सारे काम…। घर के काम के साथ-साथ हमको बाहर के काम भी करने होते थे। घर की बाड़ी में सब्जी उगाना और उसे बाजार में बेचने जाना, फिर जंगल से लकड़ी लाना और बांस के करील निकालना। यह सब करने के बाद बचे हुए समय में स्कूल जाती थी। जैसे तैसे मैंने पांचवी कक्षा पूरी की।
जब छठवीं में एडमीशन की बात आई तो छोटे भाई-बहनों को संभालने की जिम्मेदारी भी मेरे ऊपर आ गई। हम लड़कियों के बड़े होने के साथ-साथ उनके काम की जिम्मेदारी भी बढ़ती जाती है। वैसे भी समाज में यह मान्यता तो है ही कि ‘आगे चलकर लकड़ी को घर ही तो संभालना है! फिर आगे पढ़ने से क्या फ़ायदा?’ मैं बहुत रोई, गिड़गिड़ाई कि मुझे पढ़ना है मैं दीदी की तरह अनपढ़ नहीं रहना चाहती थी। इस बात पर पिताजी और दादा-दादी का झगड़ा भी हुआ, लेकिन इस झगड़े का अंत अच्छा रहा। मेरा कन्या आश्रम, बिंझरा में आगे की पढ़ाई के लिए दाखिला करा दिया गया। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, लेकिन मेरी अच्छी पढ़ाई को देखते हुए कन्या आश्रम की प्रिंसिपल ‘रीता जात्रा’ मैडम ने मेरी पढ़ाई का पूरा खर्च उठाने का वादा किया। मैंने अच्छे अंको से आठवीं पास की और बाद में प्री मैट्रिक कन्या आश्रम, सिंघिया में दाखिला भी लिया और वहां से भी मैंने अच्छे अंको के साथ पढ़ाई पूरी की।
पोस्ट मैट्रिक पढ़ाई के लिए हर महीने 350 रूपए लग रहे थे, जिसको पूरा करना मेरे परिवार के लिए बहुत मुश्किल हो रहा था। अंततः मुझे घर लौटना पड़ा। मैंने माता-पिता से फिर से विनती की, लेकिन उन्होंने कहा “इतनी पढ़ाई किस काम की जब ससुराल जाकर झाडू-पोछा और खाना ही बनाना है।” उस समय मुझे यही लगता था कि मेरे माता-पिता मुझे पढ़ाना ही नहीं चाहते हैं, लेकिन अब मैं उनकी मुश्किलों को समझ पाती हूं, उनकी पुरानी धारणाओं को भी और उनकी सीमाओं को भी! इस तरह की तमाम धारणाएं हमारे समाज में खूब पलती रही हैं, फिर हमारे माता-पिता भी इस समाज का हिस्सा थे तो वे इससे कैसे बच सकते थे। मैंने महुआ का फूल और तेंदू पत्ता जंगल से इकट्ठा कर बेचा और फिर उस पैसे से किसी तरह पोस्ट मैट्रिक की पढ़ाई पूरी की और इसी तरह मैंने 12वीं भी पास कर लिया था, लेकिन मेरे टीचर बनने के लिए यह काफी नहीं था। आगे की पढ़ाई के लिए और पैसे चाहिए थे और घर के आर्थिक हालात इस बात की इजाजत नहीं दे रहे थे। किसी से मदद मांगना मुझे हमेशा से ही ठीक नहीं लगता था। उन दिनों गांव में नरेगा, आज वो मनरेगा कहा जाता है, का काफी काम चलता था और गांव के लोगों ने मुझे कहा कि ‘इसमें तुम मेट का कम कर सकती हो’, मैंने मेट के लिए आवेदन कर दिया। यह काम हर रोज तो चलता नहीं था, लेकिन जब भी चलता, मैं यह काम करती रही थी। कुछ ही समय बीता था कि मां-बाप को मेरी शादी की चिंता होने लगी। उनके अनुसार मेरी शादी की उम्र हो चुकी थी।
टीचर बनने का जूनून अभी भी मेरे अंदर ज़िंदा था लेकिन इसके लिए D.Ed कोर्स करने की ज़रुरत थी और नरेगा की दिहाड़ी से कोर्स की फीस भरना असंभव था। अब मुझे लगने लगा था गांव के लोग सही ही कहते हैं कि लड़कियों के जीवन में चूल्हे-चौके का विकल्प ही एकमात्र विकल्प है। गहरी निराशा के इन्ही दिनों, मुझे एस्पायर संस्था के बारे में पता चला जो हमारे ही इलाकों में बच्चों की शिक्षा पर काम कर रही थी। एक दिन हमारी पंचायत में एस्पायर कार्यकर्ताओं द्वारा एक बैठक की जा रही थी, जिसमें सरकारी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने से सम्बंधित मुद्दों पर चर्चा हो रही थी। उसी समय मेरे मन में यह विचार आया कि क्यों न मैं एस्पायर के साथ पूरी तरह से जुड़कर स्कूल में बच्चों को पढ़ाने का का काम करूं! आख़िर! यही तो मेरा सपना है! और जल्द ही मैंने एलईपी टीचर के लिए आवेदन कर दिया।
कुछ समय बाद मेरा दोनों जगह पर चयन हो गया था, आंगनबाड़ी में भी और एलईपी टीचर के लिए भी! लेकिन मुझे यह नहीं समझ आ रहा था कि किसे चुना जाए! एक तरफ़ आंगनबाड़ी सहायिका का काम, जो भविष्य में स्थाई हो सकता था और दूसरी तरफ शिक्षक का पद! जो मेरा सपना था। अंततः मैंने शिक्षक बनने का ही फैसला किया और 15 अप्रैल 2023 को मैंने प्राइमरी स्कूल मुकुआ में तीसरी से पांचवी कक्षा तक के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया।
एस्पायर हमेशा अपने टीचर्स को अपडेट रखता है। वो कई तरह की ट्रेनिग और वर्कशॉप के ज़रिए हम शिक्षकों के पढ़ाने के तरीके को उन्नत करता रहता है। जिसकी हिस्सेदार मैं भी थी। इसके साथ ही गावों में बैठक और रैली करके लोगों को भी शिक्षा के प्रति जिम्मेदार बनाने की लगातार कोशिश जारी रहती थी। जिसका नतीजा था कि एलईपी क्लास शुरू होने के पहले बच्चों की उपस्थिति 50-60 प्रतिशत थी, जो अब बढ़कर 94-95 प्रतिशत हो गई थी।
बच्चों की उपस्थिति बढ़ने का मुख्य कारण, पढ़ाने का तरीका, रंगबिरंगे, आकर्षक टीएलएम जैसी चीजें थीं, जिनको बच्चों के साथ कैसे इस्तेमाल करना है, मैंने एस्पायर की कार्यशालाओं में सीखा था। बड़े-बड़े चित्रों वाली कहानियों की किताबें और गतिविधि आधारित बच्चों के गीत, बच्चों को ही नहीं बड़ों को भी आकर्षित कर लेते हैं। बच्चों को पढ़ाने का यह तरीका भी हो सकता है, मैंने एस्पायर में ही आकर जाना था।
मैं तय कर लिया था कि जो मुश्किलें मैंने अपनी पढ़ाई के दौरान झेली थीं, वो इन बच्चों को नहीं झेलने दूंगी। मैंने उन्हें अच्छे से पढ़ाऊंगी। यह सोच कर मुझे और भी अच्छा लगता है कि मैंने जिस स्कूल में कभी पढ़ाई की थी, आज मैं उसी स्कूल में पढ़ा रही हूं। स्थानीय लोगों के साथ अब तो और भी अच्छे संबंध हो गए हैं।
मेरे माता-पिता और ससुराल वाले सभी को मेरे काम पर गर्व होता है, जबकि एक समय था कि ससुराल वाले मुझे नौकरी छोड़ने को कह रहे थे। मेरे काफी समझाने के बाद आखिरकार न सिर्फ़ उन्होंने मेरे सपने को स्वीकार कर लिया बल्कि अब वे मुझे पूरा सहयोग भी देते हैं। अब जब कभी मैं पीछे मुड़ कर देखती हूं, तो वो सारे दुख, सारी तकलीफ़ें, सब कुछ बीती हुई बातें लगती हैं।
एस्पायर के साथ जुड़ने से न सिर्फ़ मेरे अंदर आत्मविश्वास आया है, बल्कि सामाजिक मुद्दों को देखने का नया नज़रिया भी मिला है। पहले मैं टीचर बनने के बारे में सोचती थी, लेकिन अब मैं टीचर बनने की जिम्मेदारी और उसकी गंभीरता को भी समझती हूं। अब मैं एक नए विश्वदृष्टिकोण के साथ अपने समुदाय की शिक्षा की समस्यायों को समझती हूं बल्कि उन पर काम भी कर रही हूं।