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छत्तीसगढ़ के कोरबा ज़िले की पार्वती (बदला हुआ नाम) के सामने आज सपनों की नई उड़ान है। बारह साल की छोटी सी उम्र में उसके आँखों में बड़े-बड़े सपने तैरने लगे हैं। घर से स्कूल पास होने के बावजूद वह शिक्षा से दूर रही। लेकिन अब जब उसे किताबों और बेहतर अध्यापकों का साथ मिला तो वह शिक्षिका बनकर अपने गिरवी पड़े खेतों को छुडाने का हौसला मन में पालने लगी है। वो सोचती है कि ‘एक दिन ऐसा आएगा जब उसके पास इतने पैसे होंगे कि वह गिरवी रखे हुए खेतों को छुड़ाएगी और अपनी दादी का सहारा बनेगी’।
कुछ महीने पहले ही दैनिक भाष्कर ने एक ख़बर छापी है, जिसकी हेडिंग ही कुछ इस तरह की है, “सबसे बड़ा ब्लॉक आज भी उच्च शिक्षा में सबसे पीछे” । 2023 की जनवरी में एस्पायर संस्था ने इसी ‘छत्तीसगढ़ के सबसे बड़े ब्लॉक’ ‘पोंडी उपरोड़ा’ की कुल 114 पंचायतों में से 77 पंचायत में एक सर्वे किया। यह सर्वे 6 वर्ष से 14 वर्ष के बच्चों की शैक्षणिक स्थिति को जानने के लिए सर्वे किया था। जिसमें यह पता चला कि इन 77 पंचायतों में कुल 1712 बच्चों का स्कूल में नामांकन ही नहीं है। इनमें दोनों तरह के बच्चे शामिल थे। पहले तो वे जो कभी स्कूल ही नहीं गए थे, जिनकी संख्या 792 थी और दूसरे वो, जिन्होंने अपनी पढ़ाई, कई वजहों से, बीच में ही छोड़ दी थी और इनकी संख्या 920 थी। ‘नवापारा’ की पार्वती, जिसने अपनी उम्र के बारह वसंत घर के काम-काज करने में बिता दिए थे। उसके घर से स्कूल की दूरी महज़ 500मी. से भी कम होने के बावजूद, वह शिक्षा से सालों दूर रही थी।

नवापारा गांव का यह प्राथमिक स्कूल है, घर के नजदीक यह स्कूल होते हुए भी पार्वती लम्बे समय तक नहीं जा सकी थी।

प्राकृतिक संसाधनों के मामले में कोरबा, छत्तीसगढ़ के सबसे समृद्ध ज़िलों में से एक है, जहां एक ब्लॉक के 77 पंचायतों में शिक्षा की यह स्थिति है। यदि बाक़ी चार ब्लॉक की पंचायतों की स्थिति को भी जोड़ दिया जाए तो आपके हिसाब से स्कूल से बाहर बच्चों की कितनी संख्या होगी..? पार्वती के पडो़सी, ‘भगवान सिंह’ कहते हैं, ‘हमारी नजरों के सामने कुछ बच्चे स्कूल जाना छोड़कर, घर के काम-काज और खेती-बाड़ी में हाथ बंटाने लग गए, और करें भी क्या? आख़िर इसके बिना तो घर का काम भी नहीं चलने वाला है।’ ग्रामीण समाज के परिवारों में इन बच्चों का श्रम, अतिरिक्त श्रम की ज़रुरत को पूरा करता है। पार्वती के भाइयों ने भी पांचवी और छठवीं पढ़ कर छोड़ दिया था और खेती के काम में लग गए हैं। लेकिन इसके साथ ही भगवान जी स्कूल की पढ़ाई को भी दोष देते हैं कहते हैं ‘अगर स्कूल वाले अच्छा पढ़ाते तो शायद इतनी बड़ी संख्या में बच्चे स्कूल से बाहर नहीं होते’।
पार्वती ‘गोंड’ समुदाय से आती है। इस समुदाय में शिक्षा का स्तर बाक़ी समुदायों की तुलना में काफी नीचे है। करण बाई (पार्वती की दादी) की उम्र 65 के आस-पास होगी, पारिवारिक स्थिति के बारे में पूछने पर बताती हैं, ‘हमारा गुजर-बसर खेती, दिहाड़ी और घर के बैल, बकरी चराने हो जाता था, लेकिन पता नहीं हमारे परिवार पर किसकी बुरी नजर पड़ी कि पूरा परिवार अस्त-व्यस्त हो गया। लगभग 10 साल पहले इसके पिता की मौत हो गई।’ उस दिन को याद करते हुए वे भावुक हो जाती हैं, कहती हैं, ‘निंजर’ (बेटा) रात में मछली पकड़ने गया था और फिर कभी लौटा ही नहीं। काफी देर हो जाने के बाद जब सब लोग उसे खोजने निकले तो वो एक नाले के किनारे मृत पड़ा मिला था।’ पार्वती कहती है कि ‘पिता की मौत की सच्चाई उसे नहीं पता है, दादी कहती है कि, ‘सांप काटने से हुई है’, लेकिन गांव वाले कुछ और ही कहते हैं..।’ पिता की मौत के बाद बच्चे अपनी छोटी उम्र के बावजूद बड़ी जिम्मेदारियों को संभालने में लग गए। करन बाई बताती हैं कि ‘बड़ा बेटा अपनी मां के साथ घर की छोटी सी खेती-किसानी को संभालने लगा था और मंझला बेटा बैल-बकरी चराने लगा था’। उस समय पार्वती मात्र 2 ही साल की थी।

बाएं: अपने बड़े भाई के साथ पार्वती। पार्वती से तीन बड़े भाई हैं, दो तो बाहर रहते है और एक घर में रहता है। दाएं: घर के काम को ख़त्म करते हुए दिन का लंबा वक्त निकल जाता है, फुर्सत के क्षण में दादी से बाल ठीक करवाते हुए।

बाएं: घर में झाड़ू-बुहारू का काम निपटाते हुए। दाएं: खेतिहर समाज में बच्चों की उम्र के हिसाब से उनका काम बंटा होता है। फसल की मड़ाई के दौरान बैलों को हांकते हुए पार्वती।

बीतते समय के साथ घर की स्थिति और भी बिगड़ती जा रही थी। घर को चलाने के लिए खेत भी गिरवी रखे जा चुके थे। जब पार्वती 6 साल की हो रही थी तभी उसकी मां ने दूसरी शादी कर ली और चली गई। यह उम्र पार्वती के स्कूल जाने की थी लेकिन उसके घर से स्कूल नज़दीक होते हुए भी मीलों दूर था। मां के जाने के बाद पूरे घर की जिम्मेदारी उसकी दादी पर आ पड़ी थी और दादी की मदद की ज़िम्मेदारी पार्वती की। दादी कहती हैं कि ‘पार्वती को स्कूल भेजने का विचार तो आता था लेकिन घर को संभालने में वही मेरी मदद भी करती थी। वो घर के सारे काम, खाना बनाने से लेकर, झाड़ू, लिपाई-पोताई, पानी लाना, बर्तन धोना और कभी-कभी बकरी भी चराने जाती थी।’ 12 वर्ष की उम्र तक वो यह सब करती रही थी। पार्वती बताती है कि, ‘उसका मन तो करता था कि अपनी सहेलियों के साथ वह भी स्कूल जाए लेकिन घर में काम बहुत होता था। और वह दादी को अकेला भी नहीं छोड़ना चाहती थी।’ यह सच है कि लड़कियां अपनी मां या दादी के ज़्यादा करीब होती हैं, शायद वे उनकी जरूरतों और भावनाओं को लड़कों से ज़्यादा समझती हैं। आरबीसी में रहते हुए उसे हमेशा यह चिंता लगी रहती है कि उसकी दादी की देखभाल कौन कर रहा होगा..।

उम्र बढ़ते जाने के साथ-साथ उसकी जिमेदारियां भी बढ़ती जा रही थीं। एक समय घर के सारे काम-काज की ज़िम्मेदारी प्रमुख रूप से पार्वती की होती थी।

वर्तमान समय में पार्वती एस्पायर के द्वारा, लड़कियों के लिए, चलाए जा रहे आवासीय ब्रिज कोर्स सेंटर, में अपनी पढ़ाई को शुरू से शुरू कर रही है। करण बाई अपने सबसे छोटी और लाड़ली पोती को याद करते हुए कहती हैं कि ‘वही घर के सारे काम-काज करती थी, अब तो वो आरबीसी सेंटर चली गई है, अच्छा है! कम से कम वहां कुछ पढ़-लिख तो लेगी, नहीं तो वह भी अपने भाइयों की तरह कहीं मेहनत-मजूरी करती।’ करण बाई की इच्छा है कि उनकी पोती कम से कम इंटर पास कर ले, ताकि उसे कुछ अच्छा काम मिल सके।

पार्वती घर के सारे काम कर लेती है, खाना बनाने से लेकर पानी लाने तक।

एस्पायर की स्टाफ़ इंदिरा कुरूम (जीपीसीएम, नवापारा) बताती हैं, ‘पार्वती की उम्र काफी हो चुकी थी और वो कभी स्कूल भी नहीं गई थी, उसकी उम्र के हिसाब से कक्षा में दाखिले के लिए उसे काफी तैयारी की ज़रूरत थी और यह तैयारी आवासीय ब्रिज कोर्स सेंटर, रामपुर में जा कर ही हो सकती थी। यह बात उसके परिवार वालों को समझाना काफी मुश्किल था।’ दादी कहती थीं कि‘स्कूल तो पास में ही है फिर इतनी दूर जाने की क्या ज़रूरत है?’ इंदिरा के कई बार समझाने के बाद दादी मान गईं। लेकिन पार्वती नई जगह जाने के लिए तैयार नहीं थी। वह आरबीसी जाने के नाम पर ही रोने लगती थी।
पोंडी उपरोड़ा में बच्चों की स्थिति को ध्यान में रखते हुए एस्पायर ने दो आरबीसी सेंटर की शुरुआत की थी, एक लड़कों के लिए और लड़कियों के लिए। आरबीसी कई मायनों में इस तरह के बच्चों की शैक्षिक ज़रूरत को पूरा करता है। जिसमें रहने खाने और पढ़ाने की विशेष पद्धति के जरिए लर्निंग गैप को पूरा करता है। पिछले सितंबर में पार्वती का दाख़िला बालिका आरबीसी, रामपुर में करा दिया गया।

बाएं: पार्वती के परिवार वालों से बात करते हुए एस्पायर का स्टाफ। दाएं: बालिका आवासीय ब्रिज कोर्स सेंटर, रामपुर जाने के लिए तैयार पार्वती।

एस्पायर संस्था के टीचर्स के पढ़ाने का तरीका सरकारी स्कूलों से बिल्कुल अलग है। जिसमें हम बच्चों को उनकी इच्छा के अनुसार और उनकी ही भाषा में पढ़ाने का प्रयास करते हैं जिसमें रचनात्मक शैक्षणिक गतिविधियों और शिक्षण सामग्री (टीएलएम) का इस्तेमाल बच्चों के लिए उनकी शिक्षा को बेहद रोचक और आसान बना देती है यहां शिक्षा का एक अनुकूल वातावरण निर्माण कर बच्चों के लर्निंग गैप को पूरा किया जाता है। ताकि बच्चे अपनी उम्र के अनुरूप कक्षा में दाख़िला ले सकें और अपनी पढ़ाई ज़ारी कर सकें। आरबीसी टीचर राजेश्वरी जी बताती हैं कि ‘जब भी कोई नया बच्चा आता है तो उसे शुरुआती तौर पर रहने में थोड़ी दिक्कत आती है। उसके लिए सब कुछ नया-नया होता है। यहां का माहौल अपनाने में उसे कुछ दिन लगते हैं, पार्वती भी शुरू के दो-तीन उदास रही थी, वो किसी से ज़्यादा बात नहीं करती थी, लेकिन वहां नए दोस्तों के बनने और टीचर्स द्वारा रोचक कहानी, कविता, खेल-कूद करवाने से वो जल्दी ही सब के साथ घुलने-मिलने लगी थी।’ राजेश्वरी कहती हैं कि ‘बच्चों के साथ जुड़ने के लिए उनकी भाषा में सारी गतिविधियों को करना बेहद जरूरी होता है। इन सभी बातों के साथ एक और ज़रूरी बात राजेश्वरी बताती हैं कि ‘यहां पर स्वास्थ्य, सफ़ाई और खाने पर विशेष ध्यान दिया जाता है। बहुत सारे बच्चे ऐसी परिस्थितियों से आए होते हैं जहाँ उन्हें दो वक्त का खाना मिलना भी मुश्किल होता है ऐसे कठिन हालातों से आए हुए इन बच्चों के लिए समय-समय पर खाना और नाश्ता उनके शारीरिक विकास की बेहद अहम् ज़रूरत को पूरा करता है।

बाएं: खेल-खेल में सीखते हुए बालिका आरबीसी के बच्चे। दाएं: लंच टाइम..।

लर्निंग एक्टिविटी।

एक महीना बीतने के साथ ही वो खेल-कूद के साथ पढ़ाई-लिखाई में भी रुचि लेने लगी थी। वर्तमान में पार्वती को वहां रहते हुए 4 महीना हो चुका है और इन महीनों के बीच वह अंकों का पहचान, अक्षरों का पहचान, बारहखडी एवं फलों और रंगों इत्यादि को बहुत अच्छे तरीके जानने समझने लगी है। इतना ही नहीं, आरबीसी में रहते हुए, वो भविष्य के सपने भी बुनने लगी है.., कहती है- ‘उसे टीचर बनना, बच्चों को पढ़ाना है और साथ में खूब पैसे भी कमाने हैं ताकि वो अपने गिरवी रखे हुए खेतों को छुडा सके, मैं बस अपनी दादी को ख़ुश रखना चाहती हूं।’

घर की रसोईं से आरबीसी की कक्षा तक का सफ़र। पार्वती आगे पढ़-लिख कर एक टीचर बनना चाहती है और अपने गिरवी रखे हुए खेतों को छुड़ाना चाहती है।

बालिका आवासीय ब्रिज कोर्स सेंटर, रामपुर में पार्वती की तरह ही सुशीला, कौशल्या, रानू, पूनम आदि अन्य 60 बच्चियां, वहां रह कर पढ़ रही हैं। हसदेव नदी घाटी से निकल कर आने वाली ये बच्चियां उन समुदायों के लिए एक उम्मीद के रूप में हैं, जिसे पिछले कई महीनों से ‘एस्पायर’ और ‘द हंस फाउंडेशन’ के साझे प्रयासों से बोया गया है। कोरबा के अन्य ब्लॉक में पार्वती, सुशीला की तरह और भी बहुत सारी बच्चियां हैं जिन्हें आरबीसी या उस जैसे किसी संरचना की ज़रूरत है, ताकि वे भी पार्वती की तरह भविष्य के सपने बुन सकें और अपने शिक्षा के अधिकार को भी हासिल कर सकें।

                         https://www.bhaskar.com/local/chhattisgarh/korba/news/the-biggest-block-is-still-behind-in-higher-education-131719111.html